उपर्युक्त उक्ति में कवि ने साधु की परिभाषा या उसके लक्षण को बताया है। केवल एक छोटी सी उपमा देकर या उदाहरण प्रस्तुत करके साधु की परिभाषा कितनी सटीक बताई गई है। यह कवि की सूझबूझ परिचायक है। जैसे सूप से फटक कर या उचिला कर हल्की चीजों या व्यर्थ की चीजों को उड़ा दिया जाता है तथा सार तत्व या मुख्य चीजें उसमें रह जाती हैं, उसी प्रकार साधु का स्वभाव होना चाहिए। इस संसार की आसार वस्तुओं तथा भाव को त्याग कर सार तत्व को ग्रहण करते जाना साधु का कार्य होना चाहिए। ऐसा जिसका स्वभाव है, वही सच्चे अर्थों में साधु कहलाने का अधिकारी है। किंतु सार सार तत्वों की पहचान के लिए विवेक की आवश्यकता होती है। विवेक के द्वारा ही ये अंतर अनुभव किए जा सकते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने सही ही कहा है- जड़-चेतन, गुण-दोषमय, विश्व किन्ह करतार।
संत-हंस, गुण-पय लयहि, परिहरि वारि विकार।।